मैं..तुम और दो कप चाय..


मैं..तुम और दो कप चाय..

कितनी मुश्किल से मिले थे..
जब मिले तो..याद है..!!
एक क्रैक आ गया था..
मेज़ पर रखे गिलास में..
मेरी कलाई पर बंधी घड़ी देखने पर
खीजने लगे थे तुम..
वक़्त को मुल्तवी करना चाहते थे..

तुम्हारे माथे की सलवटें
कुछ कम सी लगीं थीं..

मैं भी तो उस दिन खुल  के हँसी थी..
उन्हीं कम हुई सलवटों और खुली हँसी में..
वक़्त की शिनाख्त की थी..
एक मासूम दुआ सा वक़्त..
कितनी मुश्किल से मिला था..
और..
मैं..तुम और दो कप चाय..
ये भी तो कितनी मुश्किल से मिले थे..!!

5 comments:

  1. मनीषाजी,
    उम्दा रचना !
    सादर,

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  2. बहुत ही अच्छी रचना. भावपूर्ण.
    --
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