मैं सचमुच स्याह हो जाती हूँ ..!!


वो कभी नहीं देखता मेरी आँखों में..
जब लौटता है ..
सौंप कर अपने माथे की रेखाएं
कनपटी से बहता पसीना..
पलट जाता है..
मैं दिन भर अपने हिस्से के सूरज में सुलगते..
अपने पसीने की लकीरों को पोंछती
उसका पसीना आँचल में समेट लेती हूँ..
धुंए में तुम  सँवला गयी हो..
है न..?
उसका ये कहना..
मुझे भस्म करता  मुझ पर से होकर गुज़र जाता है..
और मैं सचमुच  स्याह हो जाती हूँ ..!!


बहुत कुछ गुज़रता है दिन भर..

बहुत कुछ गुज़रता है दिन भर..
बेवजह खर्च होते लम्हे
और..मासूम सपनों का आत्मघात..
फिर भी न जाने क्यूँ
कुछ बचा रह जाता है..
जो अपने बस स्याह और सफ़ेद होने से नाराज़ है..
आँख मिलकर मांगता है अपने हिस्से के रंगों को..
हर रात एक समझौता फिर होता है..
ये जानते हुए भी के कल तुम फिर टूटोगे..
लो सौंप दिया..
फिर एक रंगीन तिलिस्म..!!




जब सोचती हूँ तुम्हें..


जब सोचती हूँ तुम्हें..
एक धुन गूंजती है..
स्वरों के व्याकरण से परे..
अपरिभाषित..अर्थवान..
मंदिर में कांपती दीपशिखा सम्मोहन सा रचती है..
धूप की सुगंध घेर लेती है मुझे..
और मैं.. 
तुम्हारे नाम की प्रदक्षिणा करने लगती हूँ..!!


भेजे हैं कुछ अक्षर तुम्हें..

भेजे हैं कुछ अक्षर तुम्हें..
जिन्हें अमरत्व का वरदान है..
आश्वस्त  हूँ..तुम तक पहुँचते
ये अपना रंग..अपनी सुगंध..
अपने अर्थ सम्हाल ही लेंगे..
नीले आकाश में शायद   
मिलें  उन नक्षत्रों से भी..
जिनके संयोगों ने रचा था
एक मौन...निष्पाप रिश्ता..
जो रहा अपराजेय..अधीर और अधूरा..
जब तुम आकाश देखो..
बहुत चमकीले  ये शाश्वत शब्द..
पहचान लोगे न..

पता है तुम्हें..!!

  
कुछ अक्षरों को मनाकर..
अभी उनमें सहेजा है
हरापन जो सावन में लहका था..
सर्दियों की गुनगुनी धूप
जो सरहाने रख ली थी..

बसंत की पीली सरसों
छुपा ली है उसमें..
और हाँ..
झरते पत्तों को भी समेट लिया है..
अब ये अक्षर उगने लगे हैं..
मेरी डायरी में..
पता है तुम्हें..!!

शब्दों में बिखरा मौन..

1..भागती हांफती भीड़ में..
    कुचले जाने के आतंक से सहमा..
    चीखने को छटपटाता..
    अकेला सा बचा रह गया..
    उम्मीद का चुप..!!


2.. मैं हूँ..अब तक..
    विकट संयोगों में..
    जहाँ अनुकूल कुछ भी नहीं..
    सुलगती सी परिधि में..
    जहाँ एक नर्म आश्वासन नहीं..
    दूभर होते दिन रात..
    और तटस्थ से आशीर्वाद..
    फिर भी देखो..मैं हूँ..
    अब तक..
    नतमस्तक..!!


3.. बेचैन सी प्रतीक्षा ने
    जब भी लिखवाया
    बस प्यार ही लिखवाया..
    शायद यही वजह रही
    जब भी देखा कलम सजदे में ही दिखी..!!

4.. आवाज़..
     गले की गिरफ्त से जब निकली..
     एक लम्बी दरार थी उसमें..
     शायद..

     बदनसीब बहुत गिरहों में थीं..!!

5.. दिल अगर आ भी गया तो क्या..
     ये शहर तुम्हारा है...
     यहाँ के रास्ते..
     मुझे पहचानने से इनकार करते हैं...
     अजीब नज़रों से देखते हैं दरख़्त
     और सड़कें भटका देतीं..
     एक अदद शहर जिसे अपना कह सकूं..
     ढूंढ रही हूँ...!!


6.. रात हैरान हो कर देखती है..
    चाँद पलट कर सवाल करता है..
    और..ख्व़ाब बंधक है..
    रतजगे के सारे सामान मौजूद..!!


7.. भावनाएं बहुत अभिमानी हैं...
     नहीं टूटतीं यूँ सबके सामने..
     ये दम तोड़तीं हैं अक्सर..
     रात गए..!!

चौखट पर रुकी धूप..

पीली सी धूप..
रोज़ आ जाती है नीम को पार करते..
मेरी चौखट पर..
रुक कर देखता है सूरज..
उस पीली पड़ती धूप को..
कांपती है जब वो मेरे लेम्पशेड के पास आकर..
और मैं देखती हूँ टकटकी लगाकर
उनका यूँ मिलना..
एक मौन समझौता..
जैसे थकी हुई धूप मेरी शाम के सांवलेपन को
कम करने की हिदायत दे रही हो..
लेम्पशेड कुछ कहता नहीं
बस मुस्कुरा देता है..
आज लेकिन ठिठक गयी..
रुक गयी धूप चौखट पर..
आज वहां नहीं था लेम्पशेड..
बस थी एक ज़र्द पड़ी तस्वीर..
और उसपर काँपता लिफाफा..
धूप फिर लौट गयी..
अब शायद कल फिर न आये..!!