एक बार क्यूँ न वक़्त को मुल्तवी किया जाए..!!
फिर घूँट भर चांदनी गटकी जाए..
उँगलियों से आकाश पर चाँद उकेरा जाए..
चुपचाप एक रेस्तरां में बेवजह बैठे हुए
कोंफी से निकलती भाप को
हथेलियों में रोक..
उसे पसीने में तब्दील होते देखा जाए...
और आँखों में आती बूंदों को भीतर उंडेल लिया जाए..
चलो आज वक़्त को मुल्तवी किया जाए...
कैसी विवशता है..
अब लिख नहीं पाती खुला आकाश..
आँक नहीं पाती उड़ते परिंदे..
मेरी लिखी उद्भ्रांत नदी..
सिमटी सिमटी सी लगती है..
खुरचती हूँ नाखूनों से
दिल में उग आई दीवार को..
ताकि बना सकूं एक सुराख़..
सीने में उलझी सांस के लिए..
अपने हिस्से के सूरज को देखे
एक अरसा हो गया..!!
मैं थी..तुम नहीं थे..
सामने था बदहवास समंदर..
और थी..अपनी आँखें पोंछते हुए..
कमरे में कांपती सीली हवा..
उस किनारे फैली थी..
बुद्ध के मंदिर में..
पावन सुनहली रौशनी..
और मेरी उदास आँखों में..
मौन प्रार्थना..
जब..मेरी आवाज़ टूट रही थी
आकाश दरक रहा था..
तब भी..बस..
मैं थी..तुम नहीं थे..!!
अब लफ्ज़ हाथों से नहीं 
आँखों से गिरा करते हैं..
भीगे भीगे लफ्ज़..
इनका रंग क्यूँ सुर्ख हुआ जाता है..?
पहले तो ये पानी से हुआ करते थे..!!
ज़मीं पर गिरते हैं..
हाथों से गिरी दुआ की तरह..
जहाँ दबी हैं कई चीखें..
और बेआवाज़ कराहें....
मेरे लफ्ज़ सिहरते हैं..रिसते हैं..
शायद ज़ख़्मी हैं....
पलटकर देखती हूँ..
दीवार पर गिरता गहरा स्याह बादल..
और लहराते लाल पीले पर्दों पर 
काँपती तुम्हारी छाया..
जानती हूँ..
इस मौसम में छायाएं नहीं दिखा करतीं..
लेकिन..मेरे जीवन के सबसे गहरे शेड
अक्सर..इसी मौसम काँपा करते हैं..!!

उस लम्हा..ठहर जाती हूँ..!!


तुम्हें सोचना अक्सर ...
कुछ यूँ करता है..
आँखें उठा कर देखती हूँ..
तुम्हारे नाम का इन्द्रधनुष
खिंचने लगता है आकाश में..
किनारे बहकने लगते हैं
उनींदी नदी..
आँखें खोल देती है..
आँगन के ज़रा और किनारे
आ लगती है धूप..
मैं पहन कर तुम्हारी खुशबू..
भीगने लगती हूँ..
उस लम्हा..ठहर जाती हूँ..
तुम्हें सोचना क्यूँ मुझे..
वक़्त की फ्रेम में जड़  देता है..!!

फिर से लिखो मुझे..!!


एक बार फिर से लिखो मुझे..
बहुत संभव है..
तरल शब्दों में,
अबके नहीं बहेगा अस्तित्व..
और शायद..बच रहेगा..
मेरे हिस्से का गंगाजल..!!