कुछ कहा कुछ अनकहा...

एक स्पर्श प्रेम




तुम्हारी आँखों का स्पर्श..

लिपटता है देह से..

और मैं काँप जाती हूँ..

सोचती हूँ..

कितना अलग होता यूँ सिहरना प्रेम में..

जैसे गर्मी की अलसाई दोपहर में

थक कर लेटी नदी पर..

दरख्तों ने साज़िश कर..

एक किरण

और मुट्ठी भर हवा

बिखेर दी हो...!!


लिखती हूँ प्यार..
अनकहा





मैं कब लिखती हूँ प्यार..

यूँ मेरा प्यार लिख पाना

उतना ही मुश्किल..

जितना तुम्हारा उसे कह पाना..

उसे तो मैंने सुना था..

जब बहुत असहज हुए थे तुम..

उन अस्त व्यस्त से कुछ क्षणों में..

साहस किया था..

और चुरा लायी थी..

तुम्हारा अनकहा प्यार..

अब जब भी लिखने को होती हूँ..

तुम पास आ जाते हो..

धीरे से..कन्धों पर मेरे रख देते हो..

अपनी दोनों हथेलियाँ..

प्रतीक्षा करने लगते हो..

कब लिखूंगी..

तुम्हारा अनकहा प्यार..







प्रेम 


जब देह से परे मिली तुम्हें..

तुमने गहन स्वर में

आकाश थाम कर कहा

प्रेम..

और मेरा पूरा जीवन

एक मौन प्रार्थना हो गया..



तुम्हें सोचना अक्सर  यूँ 



तुम्हें सोचना अक्सर कुछ यूँ करता है..

आँखें उठा कर देखती हूँ..

तुम्हारे नाम का इन्द्रधनुष

खिंचने लगता है आकाश में..

किनारे बहकने लगते हैं

और उनींदी नदी..

आँखें खोल देती है..

आँगन के ज़रा और किनारे

आ लगती है धूप..

मैं पहन कर तुम्हारी खुशबू..

भीगने लगती हूँ..

तुम्हें सोचना मुझे हमेशा

वक़्त के फ्रेम में जड़ देता है.. 



तुम्हारी आवाज़





तुम्हारी आवाज़ के बियाबान में भटकते

कभी मांग नहीं पायी उन्मुक्त आकाश..

उस भटकन में स्वच्छंद रही..

जी लिया एक भरपूर प्यार..

और घूँट भर पी लिया

तुम्हारी आवाज़ का पंचामृत

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