अनवरत संघर्षों का धधकता अग्निकुंड..
समिधा देह की..
अधूरे स्वप्नों की..
जो शेष रहा लिपटा रह गया अस्तित्व से..
जैसे अंगारे में बची रह जाती है राख..
धीमे धीमे सुलगती सी..
शायद फिर भी सम्भावना बची है..!!
इस निर्दोष सम्भावना की ढीठ उपस्थिति
फिर से सर उठाती है...
होती है इस अंतर्दहन की राख से
फिर उपजने की कोशिश..
और मैं फिर..
अग्निपाखी..
समिधा देह की..
अधूरे स्वप्नों की..
जो शेष रहा लिपटा रह गया अस्तित्व से..
जैसे अंगारे में बची रह जाती है राख..
धीमे धीमे सुलगती सी..
शायद फिर भी सम्भावना बची है..!!
इस निर्दोष सम्भावना की ढीठ उपस्थिति
फिर से सर उठाती है...
होती है इस अंतर्दहन की राख से
फिर उपजने की कोशिश..
और मैं फिर..
अग्निपाखी..