मैं फिर..अग्निपाखी..!!

अनवरत संघर्षों का धधकता अग्निकुंड..
समिधा देह की..
अधूरे स्वप्नों की..
जो शेष रहा लिपटा रह गया अस्तित्व से..
जैसे अंगारे में बची रह जाती है राख..
धीमे धीमे सुलगती सी..
शायद फिर भी सम्भावना बची है..!!
इस निर्दोष सम्भावना की ढीठ उपस्थिति
फिर से सर उठाती है...
होती है इस अंतर्दहन  की राख से
फिर उपजने की कोशिश..
और मैं फिर..
अग्निपाखी..

बरबस लिखा हुआ..

1..हथेली की सारी रेखाएं अनशन पर हैं..
मुट्ठी में बंद होकर पसीजती सी..
अचानक भाग्य रेखा का
यूँ लापता होना
असहनीय हुआ जाता है..!!



 
2.हतप्रभ सा रुका हुआ..
निस्पंद करता मौन..
आकाश भर चीखने की लालसा..
शून्य संवेदना..
अंतहीन वेदना..
कुल जमा..आज का दिन..!!
 
3.कोरे कागज़ पर सलवटें देखीं तो चौंक गयी..
बिना कुछ लिखे क्या यूँ दरार पड़ती है..!!
 
रखा नहीं जाता एक लम्हा..
घर के किसी कोने में..
जिस तरह रखी जा सकती है
उतार कर कलाई से घड़ी..
हमेशा चस्पां यूँ एक लम्हा
मृत्यु से पहले
जुबां पर बसे साइनाइड के स्वाद सा..!!
 
5.बिना किसी शिकायत..
रात चुपचाप सौंप दी है
तुम्हारी स्मृतियों के हाथों..
आज देखना..
इन्द्रधनुष रखूंगी सिरहाने अपने..!!
 

क्या तुम सचमुच हो..!!

कुछ न होना..
शायद आकाश होना होता है..
तुमने घोषणा की 
और..मैं  ढूंढती रही  आकाश..
उस कुछ न होने में..
उगाती रही धूप..
खिलाती रही चाँद ..
आँख भर देखती रही झिलमिल तारे..
मेरा मौन..
उस कुछ नहीं से नीले एकांत में चीखता रहा..
और तुम निर्लिप्त रहे..
क्यूँ यूँ...
कुछ न होने का रंग नीला..सलेटी..
कभी कभी स्याह सा..

तुम्हारे रंग से मिलता है..
और मैं रंग से भ्रमित..
कुछ न होने में तुम्हारे होने के प्रति आश्वस्त..
लेकिन क्या तुम सचमुच हो..!!
मेरी दृढ आस्था से..
मेरे ह्रदय में भर आये शून्य से..!!

कुछ कहा कुछ अनकहा...

एक स्पर्श प्रेम




तुम्हारी आँखों का स्पर्श..

लिपटता है देह से..

और मैं काँप जाती हूँ..

सोचती हूँ..

कितना अलग होता यूँ सिहरना प्रेम में..

जैसे गर्मी की अलसाई दोपहर में

थक कर लेटी नदी पर..

दरख्तों ने साज़िश कर..

एक किरण

और मुट्ठी भर हवा

बिखेर दी हो...!!


लिखती हूँ प्यार..
अनकहा





मैं कब लिखती हूँ प्यार..

यूँ मेरा प्यार लिख पाना

उतना ही मुश्किल..

जितना तुम्हारा उसे कह पाना..

उसे तो मैंने सुना था..

जब बहुत असहज हुए थे तुम..

उन अस्त व्यस्त से कुछ क्षणों में..

साहस किया था..

और चुरा लायी थी..

तुम्हारा अनकहा प्यार..

अब जब भी लिखने को होती हूँ..

तुम पास आ जाते हो..

धीरे से..कन्धों पर मेरे रख देते हो..

अपनी दोनों हथेलियाँ..

प्रतीक्षा करने लगते हो..

कब लिखूंगी..

तुम्हारा अनकहा प्यार..







प्रेम 


जब देह से परे मिली तुम्हें..

तुमने गहन स्वर में

आकाश थाम कर कहा

प्रेम..

और मेरा पूरा जीवन

एक मौन प्रार्थना हो गया..



तुम्हें सोचना अक्सर  यूँ 



तुम्हें सोचना अक्सर कुछ यूँ करता है..

आँखें उठा कर देखती हूँ..

तुम्हारे नाम का इन्द्रधनुष

खिंचने लगता है आकाश में..

किनारे बहकने लगते हैं

और उनींदी नदी..

आँखें खोल देती है..

आँगन के ज़रा और किनारे

आ लगती है धूप..

मैं पहन कर तुम्हारी खुशबू..

भीगने लगती हूँ..

तुम्हें सोचना मुझे हमेशा

वक़्त के फ्रेम में जड़ देता है.. 



तुम्हारी आवाज़





तुम्हारी आवाज़ के बियाबान में भटकते

कभी मांग नहीं पायी उन्मुक्त आकाश..

उस भटकन में स्वच्छंद रही..

जी लिया एक भरपूर प्यार..

और घूँट भर पी लिया

तुम्हारी आवाज़ का पंचामृत

क्यूँ बिखरने लगती हूँ..!!

तुम्हारी आवाज़ भर्रायी सी
कहती है..प्रेम..
और पहन लेती है मेरी आंच का मफलर..
पिघलने लगती है..
रिसने लगती है आँखों से..
तुम मेरा आँचल थाम लेते हो..
शायद सम्हल जाते हो..
मैं..लेकिन..
क्यूँ बिखरने लगती हूँ..!! 

मैं..तुम और दो कप चाय..


मैं..तुम और दो कप चाय..

कितनी मुश्किल से मिले थे..
जब मिले तो..याद है..!!
एक क्रैक आ गया था..
मेज़ पर रखे गिलास में..
मेरी कलाई पर बंधी घड़ी देखने पर
खीजने लगे थे तुम..
वक़्त को मुल्तवी करना चाहते थे..

तुम्हारे माथे की सलवटें
कुछ कम सी लगीं थीं..

मैं भी तो उस दिन खुल  के हँसी थी..
उन्हीं कम हुई सलवटों और खुली हँसी में..
वक़्त की शिनाख्त की थी..
एक मासूम दुआ सा वक़्त..
कितनी मुश्किल से मिला था..
और..
मैं..तुम और दो कप चाय..
ये भी तो कितनी मुश्किल से मिले थे..!!

स्तब्ध नदी..!!

नदी आज बहुत चुप..
सुबह से..
जैसे लहरों को बाँध लिया हो किसी ने..
कोई हलचल नहीं..
स्तब्ध नदी..
बताओगी..?
किस के पाँव पखार लिए थे आज..!!

क़ैद आवाजें..

क्या आवाजें क़ैद हो गयीं हवाओं में..
प्रार्थना के बोल..
कुछ अनसुलझे प्रश्न..
और नितांत अपने से दुःख..
जो होंठ भींच के कहे  थे मैंने..
तुम तक पहुँच नहीं पाए..
लौट के भी नहीं आये..
लगता है वो सारी आवाजें 
सज़ायाफ्ता मुजरिम में तब्दील हो गयीं..
तभी अक्सर चीखने से पहले 
आवाजें खुद-ब-खुद घुटने लगती हैं..
हश्र जानतीं है अपना..!!