अनवरत संघर्षों का धधकता अग्निकुंड..
समिधा देह की..
अधूरे स्वप्नों की..
जो शेष रहा लिपटा रह गया अस्तित्व से..
जैसे अंगारे में बची रह जाती है राख..
धीमे धीमे सुलगती सी..
शायद फिर भी सम्भावना बची है..!!
इस निर्दोष सम्भावना की ढीठ उपस्थिति
फिर से सर उठाती है...
होती है इस अंतर्दहन की राख से
फिर उपजने की कोशिश..
और मैं फिर..
अग्निपाखी..
समिधा देह की..
अधूरे स्वप्नों की..
जो शेष रहा लिपटा रह गया अस्तित्व से..
जैसे अंगारे में बची रह जाती है राख..
धीमे धीमे सुलगती सी..
शायद फिर भी सम्भावना बची है..!!
इस निर्दोष सम्भावना की ढीठ उपस्थिति
फिर से सर उठाती है...
होती है इस अंतर्दहन की राख से
फिर उपजने की कोशिश..
और मैं फिर..
अग्निपाखी..
इस निर्दोष सम्भावना की ढीठ उपस्थिति
ReplyDeleteफिर से सर उठाती है...
होती है इस अंतर्दहन की राख से
फिर उपजने की कोशिश..
yahi to jijivisha hai....
यही प्रयास निरंतर बना रहना चाहिए
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति
कुछ संवेदनाओ को एक धधकने के लिये एक चिंगारी की जरूरत होती है……………बेहद उम्दा प्रस्तुति।
ReplyDelete"निर्दोष सम्भावना की ढीठ उपस्थिति
ReplyDeleteफिर से सर उठाती है..."
samvedna dil ke bhitri parat ko chhuti hui...abhar!!
होती है इस अंतर्दहन की राख से
ReplyDeleteफिर उपजने की कोशिश..
और मैं फिर..
अग्निपाखी..
Excellent creation !
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समिधा देह की..
ReplyDeleteअधूरे स्वप्नों की..
जो शेष रहा लिपटा रह गया अस्तित्व se..
bahut hi sunder rachna hai
sab kuch khatma hone ke bad bhi kuchh shesh rah jata hai ..yahi jeevan chakra hai ....
फिर से सर उठाती है...
ReplyDeleteहोती है इस अंतर्दहन की राख से
फिर उपजने की कोशिश..
और मैं फिर..
अग्निपाखी..
बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
शुभकामनायें !
आप सभी के स्नेह से अभिभूत हूँ..अचानक यूँ ही सा लिखा..आपको अच्छा लगा..मेरा सौभाग्य.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteनिर्दोष संभावना की ढीठ उपस्थ्तिती,
ReplyDeleteये सिर्फ आप सोच सकती है मनीषा दि