मैं सचमुच स्याह हो जाती हूँ ..!!


वो कभी नहीं देखता मेरी आँखों में..
जब लौटता है ..
सौंप कर अपने माथे की रेखाएं
कनपटी से बहता पसीना..
पलट जाता है..
मैं दिन भर अपने हिस्से के सूरज में सुलगते..
अपने पसीने की लकीरों को पोंछती
उसका पसीना आँचल में समेट लेती हूँ..
धुंए में तुम  सँवला गयी हो..
है न..?
उसका ये कहना..
मुझे भस्म करता  मुझ पर से होकर गुज़र जाता है..
और मैं सचमुच  स्याह हो जाती हूँ ..!!


5 comments:

  1. मनीषा दी ये " स्याह " कही अपनी और खिचता हुवा सा है

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  2. अब कहने को क्या बचा………………गहरी वेदना।

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  3. मुझे भस्म करता मुझ पर से होकर गुज़र जाता है..
    और मैं सचमुच स्याह हो जाती हूँ ..!!

    वाह..............वेदना को जैसे इआपने बाँध लिया है इन शब्दों में..............बढ़िया !

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