1. मैं रोपती हूँ स्वप्न/
और सींचती हूँ उन्हें आंसुओं से /
स्वप्न लताएँ लिपटने लगतीं है आत्मा से /
आँखें रीत जाती हैं..
2 तुम्हारी सनातन यात्रा..
और सींचती हूँ उन्हें आंसुओं से /
स्वप्न लताएँ लिपटने लगतीं है आत्मा से /
आँखें रीत जाती हैं..
2 तुम्हारी सनातन यात्रा..
मुझे रोक लेती है..
ठहर जाती हूँ ताकि तुम चल सको..
वक़्त के फ्रेम में जड़ी हुई मैं..
छीने गए सब शब्दों को तरस कर देखती हूँ.
यूँ चुपचाप रुके प्रेम करना..
तुम्हारी भटकन से ज्यादा मुश्किल है..
बेहद मुश्किल..!!
बहुत सुंदर लिखा है -
ReplyDeleteइतनी गहरी वेदना छिपी है ...!!
ऐसे में चुप रहना ..स्वयं की हत्या करने जैसा है ...!!
bas likhate jaiye ...!!