बहुत कुछ गुज़रता है दिन भर..
बेवजह खर्च होते लम्हे
और..मासूम सपनों का आत्मघात..
फिर भी न जाने क्यूँ
कुछ बचा रह जाता है..
जो अपने बस स्याह और सफ़ेद होने से नाराज़ है..
आँख मिलकर मांगता है अपने हिस्से के रंगों को..
हर रात एक समझौता फिर होता है..
ये जानते हुए भी के कल तुम फिर टूटोगे..
लो सौंप दिया..
फिर एक रंगीन तिलिस्म..!!
बेवजह खर्च होते लम्हे
और..मासूम सपनों का आत्मघात..
फिर भी न जाने क्यूँ
कुछ बचा रह जाता है..
जो अपने बस स्याह और सफ़ेद होने से नाराज़ है..
आँख मिलकर मांगता है अपने हिस्से के रंगों को..
हर रात एक समझौता फिर होता है..
ये जानते हुए भी के कल तुम फिर टूटोगे..
लो सौंप दिया..
फिर एक रंगीन तिलिस्म..!!
बेवजह खर्च होते लम्हे
ReplyDeleteऔर..मासूम सपनों का आत्मघात..
फिर भी न जाने क्यूँ
कुछ बचा रह जाता है..
बहुत गहन बात ..सुन्दर अभिव्यक्ति
्बेहद गहन अभिव्यक्ति।
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