मैं थी..तुम नहीं थे..
सामने था बदहवास समंदर..
और थी..अपनी आँखें पोंछते हुए..
कमरे में कांपती सीली हवा..
उस किनारे फैली थी..
बुद्ध के मंदिर में..
पावन सुनहली रौशनी..
और मेरी उदास आँखों में..
मौन प्रार्थना..
जब..मेरी आवाज़ टूट रही थी
आकाश दरक रहा था..
तब भी..बस..
मैं थी..तुम नहीं थे..!!
जब..मेरी आवाज़ टूट रही थी
ReplyDeleteआकाश दरक रहा था..
तब भी..बस..
मैं थी..तुम नहीं थे..!!
असीम वेदना को कहती पंक्तियाँ ..
कितनी उदासी से भरी है इस रचना की पंक्तियाँ...अपने में दर्द को समेटे हुए हैं
ReplyDeletemarmik.....
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