कैसी विवशता है..
अब लिख नहीं पाती खुला आकाश..
आँक नहीं पाती उड़ते परिंदे..
मेरी लिखी उद्भ्रांत नदी..
सिमटी सिमटी सी लगती है..
खुरचती हूँ नाखूनों से
दिल में उग आई दीवार को..
ताकि बना सकूं एक सुराख़..
सीने में उलझी सांस के लिए..
अपने हिस्से के सूरज को देखे
एक अरसा हो गया..!!
अब लिख नहीं पाती खुला आकाश..
आँक नहीं पाती उड़ते परिंदे..
मेरी लिखी उद्भ्रांत नदी..
सिमटी सिमटी सी लगती है..
खुरचती हूँ नाखूनों से
दिल में उग आई दीवार को..
ताकि बना सकूं एक सुराख़..
सीने में उलझी सांस के लिए..
अपने हिस्से के सूरज को देखे
एक अरसा हो गया..!!
ताकि बना सकूं एक सुराख़..
ReplyDeleteसीने में उलझी सांस के लिए..
अपने हिस्से के सूरज को देखे
एक अरसा हो गया..!!
बहुत गहन बात मन की ... अच्छी प्रस्तुति
अच्छा लगा मन की इस विवशता के स्वाभाविक चित्रण को पढ़कर....और आपकी सकारात्मक सोच,,,, ताकि बना सकूं एक सुराख़..
ReplyDeletebahut bhawuk....gahri baat.
ReplyDelete