उस लम्हा..ठहर जाती हूँ..!!


तुम्हें सोचना अक्सर ...
कुछ यूँ करता है..
आँखें उठा कर देखती हूँ..
तुम्हारे नाम का इन्द्रधनुष
खिंचने लगता है आकाश में..
किनारे बहकने लगते हैं
उनींदी नदी..
आँखें खोल देती है..
आँगन के ज़रा और किनारे
आ लगती है धूप..
मैं पहन कर तुम्हारी खुशबू..
भीगने लगती हूँ..
उस लम्हा..ठहर जाती हूँ..
तुम्हें सोचना क्यूँ मुझे..
वक़्त की फ्रेम में जड़  देता है..!!

फिर से लिखो मुझे..!!


एक बार फिर से लिखो मुझे..
बहुत संभव है..
तरल शब्दों में,
अबके नहीं बहेगा अस्तित्व..
और शायद..बच रहेगा..
मेरे हिस्से का गंगाजल..!!
दीवार पर टंगी तस्वीर पर
लगभग..शाम चार बजे..
हर रोज़ एक धूप का टुकड़ा आ ठहरता है..
और मैं निर्निमेष ताकती हूँ..
तस्वीर पर रुका आंसू
किसी दिन तो सूखे..!!
सूनी सड़क पर
दिन चलता रहा सिर झुकाए..
और..गुलमोहर सुलगता रहा
पिघलते कोलतार पर..
हथेली में रखे अंगार सा..!!
बस अभी लिखा ही था..
..''तुम''..
गुलाबी परदे से छन् से आकर
ठीक सामने बैठ गई धूप..
झरने लगे आतिशी गुलमोहर..
और..की बोर्ड से टकरा कर
कांच की चूड़ियाँ जिरह करने लगीं..
इससे पहले के और कुछ लिखूं ..
मौन व्याप गया..!!
1. मैं रोपती हूँ स्वप्न/ 
   और सींचती हूँ उन्हें आंसुओं से /
   स्वप्न लताएँ लिपटने लगतीं है आत्मा से /
   आँखें रीत जाती हैं..



2 तुम्हारी सनातन यात्रा..
   मुझे रोक लेती है..
  ठहर जाती हूँ ताकि तुम चल सको.. 
  वक़्त के फ्रेम में जड़ी हुई मैं..
  छीने गए सब शब्दों को तरस कर देखती हूँ.
  यूँ चुपचाप रुके  प्रेम करना..
  तुम्हारी भटकन से  ज्यादा मुश्किल है..
  बेहद मुश्किल..!!