‎''शेष फिर..''
इस एक शब्द ने बाँध लिया मुझे..
मैं अनमनी सी..
प्रतीक्षा में..
जो शेष रह गया उसे सम्पूर्णता देने..
जानती नहीं थी..
शेष फिर भी रह ही जाता है..
मेरी चिर प्रतीक्षा की तरह..

तुम क्या लिखते हो..

मैं जानना चाहती हूँ..
तुम क्या लिखते हो..
क्या आँखों में सूना सूना
इंतज़ार लिखते हो..
या पपड़ाये होठों का 
अनकहा प्यार लिखते हो..
किसी मासूम के रुआंसे चेहरे का
हाहाकार लिखते हो..
या इस व्यापारी दुनिया का
व्यापार लिखते हो..
मेरे हिस्से आये कागज़ और कलम..
जब देखती हूँ सिहरते रहते हो..
जैसे किसी बुझती लौ की
आखिरी लपक लिख रहे हो..!!



क्या उठा सकोगे मेरे ह्रदय का भार ....???

यमुनाजी का जल अंजुरी में भर..
तुम्हे अर्घ्य अर्पित कर पूछती हूँ..मनमोहन..
कहीं स्मृति में धंसी है वो छवि..?
हाँ..वही..
अनजाने ही तुम्हारे चरणों से
कुचला  गया..
पारिजात का फूल हूँ मैं..
तुमने बिसराया जिसको 
उसी ब्रज की धूल हूँ मैं..
गोवर्धन का भार उठाया था तुमने...कान्हा..
उठा सकोगे मेरे हृदय का भार...??